Thursday, March 27, 2014

आम आदमी का ब्राउज़र आम आदमी से दूर क्यों

फ़ायरफ़ॉक्स मुक्त स्रोत के उन कुछ उत्पादों में से है जिनकी आम लोगों में पहुँच काफी ज़्यादा है। इसलिए जब सीएसडीएस के रविकांतजी ने हाल में 22-23 मार्च को रेड हैट पुणे कार्यालय में आयोजित मोज़िला हिन्दी सामुदायिक सम्मेलन में मोज़िला उत्पाद मसलन फ़ायरफ़ॉक्स ब्राउज़र, फ़ेनेक, ओएस आदि के हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में पहुँच बढ़ाने के लिए हो रही चर्चा के दौरान एक ज़ुमला उछाला कि आम आदमी का ब्राउज़र आम आदमी से दूर क्यों (हिन्दी में) तो बात में काफी सचाई नज़र आई। इसमें कोई शक नहीं कि फ़ायरफ़ॉक्स आम आदमी का ब्राउज़र है। यह आम आदमी के द्वारा बनाया हुआ है। ब्राउज़र कैसा होना चाहिए इसका एक बड़ा हिस्सा स्वयंसेवी समुदाय देखती है। जहाँ तक भाषाई अनूदित ब्राउज़र की बात है लगभग सारा का सारा काम भाषाई समुदाय ही निर्धारित करते हैं। लेकिन इस ब्राउज़र के डाउनलोड अपेक्षाकृत काफी कम हैं और यह भारत की एक बड़ी सांस्कृतिक समस्या का हिस्सा भी है। बहरहाल, हमने फ़ायरफ़ॉक्स के डाउनलोड, उसके बाज़ार और संभावित श्रोता तक इसकी पहुँच सुनिश्चित करने को लेकर कुछ गंभीर बातें की। इस कार्यक्रम में मेरे साथ सीएसडीएस के रविकांत, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी के लेक्चरर विभास चन्द्र वर्मा, आशीष नामदेव, उमेश अग्रवाल, शाहिद फारूकी, इंडलिन्क के गुंटुपल्ली करुणाकर, मेघराज सूथर, सूरज कावडे, संगीता कुमारी, चंदन कुमार, अनिकेत देशपांडे, हिमांशु आनंद, और अंकित गाडगिल मौजूद थे। इसकी विस्तृत रपट मैंने विभिन्न डाक-सूची पर भी भेजी है।

इस मीट-अप ने दो पीढ़ियों को एक मंच पर लाने में मदद की। बात-चीत की कमी जो सामान्य रूप से अलग-अलग परियोजना से जुड़े लोगों में दिखती है उसे पाटने की गंभीर कोशिश हुई। दो पीढ़ियों के बीच कितने आराम से, कितनी समरसता से बात हो सकती है और कैसे इसके जरिए बेहद ख़ूबसूरत तार्किक परिणति हासिल की जा सकती है - इसे इस छोटे से सम्मेलन की सफलता को देखकर सोचा जा सकता है। मैं इस कार्यक्रम को लेकर हालाँकि आरंभ में थोड़ा सशंकित था लेकिन ताज़ा ख़ून वाले ये सभी युवा बच्चे बेहद खुले और परिष्कृत सोच के रहे। हम इनके खुलेपन और सकारात्मक सोच के कायल हैं। हमने कई काम इस सम्मेलन के दौरान किए। हमने फे़नेक के अनुवादों की समीक्षा की - मौटे तौर पर। हमने बेवमेकर को नज़दीक से जाना। हमने सूमो की प्रक्रिया को गौर से सुना। हमने कोशिश की - लोगों को लोकलाइज़ेशन की बारीकियों से परिचित कराने की। और इन सभी कामों को हमारी युवा टीम ने किया - मिलकर। करूणाकरजी ने फ़ायरफ़ॉक्स ओएस के हिन्दी कुँजीपट पर काम किया और अनिकेत ने तुरत ही उसी आधार पर मराठी का भी काम समाप्त कर लिया। इस कार्यक्रम में काफी कम समय की सूचना पर सीएसडीएस के रविकांतजी और दिल्ली विश्वविद्यालय के लेक्चरर विभासजी आए और भाषा से जुड़ी काफी जरूरी बातें रखीं। फ़ेनेक की समीक्षा में जरूरी मदद के साथ ही उन्होंने फ़्यूल हिन्दी स्टाइल गाइड में अपेक्षित सुधार का ज़िम्मा भी अपने हाथ में लिया है।

इस कार्यक्रम की जो सबसे ख़ास बात रही - वह रही स्वामित्व के साझा किए जाने की। अभी तक अधिकतर फ़ायरफ़ॉक्स के काम मैं ही देखता था...सूमो और वेबमेकर को छोड़। मैंने पाया कि मुक्त स्रोत में लोग धीरे-धीरे लोग अपने प्रोजेक्ट से बेहद पजेसिव तरीके से जुड़ जाते हैं - एक नकारात्मक जुड़ाव। शाहिद और चंदन ने पिछले साल कुछ अनुवाद स्प्रिंट किए थे। कुछ मुझे भरोसा वहाँ से ही जगा था। मुझे अहसास हुआ कि महज काम के बंटवारे से आगे बढ़ना अब जरूरी है और नए लोगों को जोड़ना बेहद आवश्यक है - हमारी भाषा के लिए भी, मुक्त स्रोत के लिए भी। मैंने स्वामित्व के साझा किए जाने की सोची और सकारात्मक चर्चा के बाद इस मुकाम पर पहुँचा थोड़ी निश्चिंतता तो मुझे आई है और मैं सबका बहुत शुक्रगुजार हूँ। शाहिदजी ने इस कार्यक्रम के संयोजन और संकल्पना में महत्पपूर्ण सहयोग दिया है। मोज़िला रेप्स कॉउंसिल ने कार्यक्रम के लिए धन मुहैया कराया और रेड हैट ने इसकी मेज़बानी की। हम मोज़िला और रेड हैड के भी शुक्रगुजार हैं।